।। श्री राष्ट्रीय क्षत्रिय महासभा।।

।।श्री राष्ट्रीय छत्रिय महासभा।।

श्री राष्ट्रीय क्षत्रिय महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री कृष्ण अवतार भाटी जी एवं शेषनाथ सिंह जिला अध्यक्ष सोनभद्र उर्जाचल के तरफ सेपूरे देशवासियों एवं क्षत्रिय परिवार को महाराणा प्रताप की जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएं


डिजिटल भारत न्यूज़24×7 LiVE– संवाददाता- संतोष कुमार रजक 
भारतीय इतिहास में राजपूतों का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। यहां के रणबांकुरों ने देश धर्म जाति तथा स्वाधीनता की रक्षा के लिए अपने बलिदान देने में भी कभी संकोच नहीं किया। उनके इस त्याग पर संपूर्ण भारत का गर्व रहा है। वीरों की इस भूमि में राजपूतों के छोटे बड़े अनेक राजा रहे, जिन्होंने राजपूतों की स्वाधीनता के लिए संघर्ष किया। इन्हीं राज्यों में मेवाड़ का अपना एक विशेष स्थान है। जिसे इतिहास के गौरव बप्पा रावल, कुमार प्रथम महाराणा हमीर, महाराणा कुंभा, महाराणा सांगा, उदय सिंह और वीर शिरोमणि कुलभूषण महाराणा प्रताप ने जन्म लिया है। मेवाड़ के महान राजपूत राजा महाराणा प्रताप अपने पराक्रम और सौर लिए अपनी पूरी दुनिया में मिसाल के तौर पर जाने जाते हैं।एक ऐसा राजपूत सम्राट जिसने जंगलों में रहना पसंद किया लेकिन, कभी विदेशी मुगलों की दास्तां स्वीकार नहीं की। उन्होंने देश धर्म और स्वाधीनता के लिए सब कुछ न्योछावर कर दिया। प्रताप के काल में, दिल्ली में मुगल सम्राट अकबर का शासन था जो, भारत की सभी राजा महाराजाओं को अपने अधीन कर मुगल साम्राज्य की स्थापना कर इस्लामिक परचम को पूरे हिंदुस्तान में फहराना चाहता था।इसके लिए उसने नीति अनीति दोनों का सहारा लिया। 30 वर्षों के लगातार प्रयासों के बावजूद अकबर महाराणा प्रताप को बंदी ना बना सका।


महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को राजस्थान के कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ था। उनके पिता महाराजा उदय सिंह द्वितीय और माता महारानी जयवंता बाई थी। वह राणा सांगा के पोते थे। महाराणा प्रताप को बचपन में सभी उनको कीका के नाम से पुकारा करते थे। जिस समय महाराणा प्रताप ने मेवाड़ की गद्दी संभाली उस समय राजपूताना साम्राज्य बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा था। बादशाह अकबर के क्रुरता के आगे कई राजपूत नरेश अपना सर झुका चुके थे। कई वीर प्रतापी रज्यवंशो के उत्तराधिकरियों ने अपनी कूल मर्यादा सम्मान भुलाकर मुगलिया वंश से वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिए थे। कुछ स्वाभिमानी राजघरानों के साथी महाराणा प्रताप के अपने पूर्वजों के मर्यादा के रक्षा हेतु अटल थे। और इसीलिए मुगल बादशाह अकबर के आंखों में वे सदैव खटकते रहते थे।
महाराणा प्रताप जिस घोड़े पर बैठते थे वो घोड़ा दुनिया के सर्वश्रेष्ठ घोड़ों में से एक था। महाराणा प्रताप तब 72 किलो का कवच पहनकर 81 किलो का भाला अपने हाथ में रखा करते थें। भाला, कवच, ढाल और दो तलवारों का वजन मिलाकर 208 किलो था।इतने वजन को उठाकर वे पूरे दिन युद्ध लड़ा करते थें। सोचिए तब उनकी शक्ति क्या रही होगी! इस वजन के साथ रणभूमि में दुश्मनों से पूरा दिन लड़ना मामूली बात नहीं थी। मेवाड़ को जीतने के लिए अकबर ने कई प्रयास किए। अकबर चाहता था कि महाराणा प्रताप अन्य राजाओं की तरह उसके कदमों में झुक जाए। पर महाराणा प्रताप ने अकबर की अधीनता को कभी भी स्वीकार नहीं किया।अजमेर को अपना केंद्र बना कर अकबर ने प्रताप के विरुद्ध सैनिक अभियान शुरू कर दिया। महाराणा प्रताप ने कई वर्षों तक मुगल सम्राट अकबर सेना के साथ संघर्ष किया।
मेवाड़ की धरती को मुगलों के आतंक से बचाने के लिए महाराणा प्रताप ने वीरता और शौर्य का परिचय दिया। प्रताप की वीरता ऐसी थी कि उनके दुश्मन भी उनकी युद्ध कौशल के कायल थे। उदारता ऐसी की दुश्मनों की पकड़ी गई पत्नियों को वे सम्मान पूर्वक उनके पास वापस भेज दिया करते थे। इस योद्धा ने संसाधन सीमित होने पर भी दुश्मन के सामने सिर नहीं झुकाया।और जंगल के कंद मूल और घास की रोटियां खाकर लड़ते रहे। माना जाता है कि महाराणा प्रताप की मृत्यु पर अकबर की आंखें भी भर आई थीं। अकबर ने भी खा कहा था देशभक्त हो तो महाराणा प्रताप जैसा अपनी विशाल मुगलिया सेना बेमिसाल बारुद खाने,युद्ध की नवीन प्रतिनिधियों जानकारों से युद्ध सलाहकारों, गुप्तचरों की लंबी फेहरिस्तकूटनीति के उपरांत भी मुगल बादशाह अकबर समस्त प्रयासों के बाद भी महाराणा प्रताप को झुकाने में असफल रहा तो उसने आमेर के महाराजा भगवान दास के भतीजे कुंवर मान सिंह जिसकी बुआ जोधा बाई थी,वो विशाल सेना के साथ डूंगरपुर और उदयपुर के शासकों को अधीनता स्वीकार करने हेतु विवश करने के लक्ष्य के साथ भेजा। मानसिंह की सेना के समक्ष डूंगरपुर राज्य अभी विरोध नहीं कर सका इसके बाद कुंवर मानसिंह महाराणा प्रताप को समझाने के लिए उदयपुर पहुंचे। मानसी ने उन्हें अकबर के अधीनता स्वीकार करने की सलाह दी। लेकिन, प्रताप ने दृढ़ता पूर्वक अपनी स्वाधीनता बनाए रखने की घोषणा की और युद्ध में सामना करने की घोषणा भी कर दी घोषणा भी कर दी। मानसिंह के उदयपुर से खाली हाथ आ जाने को बादशाह ने करारी हार के रूप में लिया तथा अपनी विशाल मुगलिया सेना को मानसिंह और आसिफ खान के नेतृत्व में मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेज दिया। आखिरकार 30 मई 1576 को बुधवार के दिन प्रातः काल में हल्दीघाटी के मैदान में विशाल मुगलिया सेना और रणबांकुर मेवाड़ी सेना के मध्य भयंकर युद्ध छिड़ा। मुगलों के विशाल सेना टीडी दल की तरह मेवाड़ भूमि की तरफ उमड़ पड़ी। उसमें मुगल, राजपूत और पठान योद्धाओं के साथ जबरजस्त तोपखाना भी था। अकबर के प्रसिद्ध सेनापति महावत खान, आसिफ खान, राजा मानसिंह के साथ शहजादा सलीम भी उस विशाल मुगल सेना का संचालन कर रहे थे, जिसकी संख्या इतिहासकार 80000 से 100000 तक बताते हैं। इस युद्ध में प्रताप ने अभूतपूर्व वीरता और साहस से मुगल सेना के दांत खट्टे कर दिए और अकबर के सैकड़ों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया विकट परिस्थिति में झाला सरदारों के एक वीर पुरुष ने उनका मुकुट और छात्र अपने सिर पर धारण कर लिया है मुगलों ने उसे ही प्रताप समझ लिया और वो उसके पीछे दौड़ पड़े। इस प्रकार उन्होंने राणा को युद्ध क्षेत्र से निकल जाने का अवसर प्रदान कर दिया। बाद में हल्दीघाटी के युद्ध में करीब 20000 राजपूतों के साथ लेकर महाराणा प्रताप ने मुगल सरदार राजा मानसिंह के 80000 की सेना का सामना किया इसमें अकबर ने अपने पुत्र सलीम यानी कि जहांगीर को युद्ध के लिए भेजा था जहांगीर को भी मुंह की खानी पड़ी और वह भी युद्ध का मैदान छोड़कर भाग गया। बाद में सलीम ने अपनी सेना को फिर से एकत्रित कर महाराणा प्रताप पर आक्रमण किया और इस बार एक भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में महाराणा प्रताप का प्रिय घोड़ा घायल हो गया। राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुगलों की सेना का सामना किया परंतु, मैदानी तोपों तथा बंदूकधारियों से सुसज्जित शत्रु के विशाल सेना के सामने समूचा पराक्रम निष्फल रहा। युद्ध भूमि पर उपस्थित 22000 राजपूत सैनिकों में केवल 8000 ही जीवित रह पाए। महाराणा प्रताप को जंगल में आश्रय लेना पड़ा। महाराणा प्रताप के सबसे प्रिय घोड़े का नाम चेतक था। चेतक बहुत ही समझदार और स्थिति को पल में ही भाप जाने वाला घोड़ा था। उसने कई मौकों पर महाराणा प्रताप की जान बचाई थी। हल्दीघाटी के युद्ध के दौरान प्रताप अपने पराक्रमी चेतक पर सवार होकर पहाड़ की ओर जा रहे थे तभी उनके पीछे दो मुगल सैनिक लगे हुए थे। चेतक ने तेज रफ्तार पकड़ ली लेकिन रास्ते में एक पहाड़ी नाला बह रहा था युद्ध में घायल चेतक 21 फुट चौड़े इस नाले को फुर्ती से लांघ गया परंतु मुगल उसे पार ना कर पाए। हालांकि चेतक इस लंबी छलांग से बुरी तरह घायल हो गया था और महाराणा को सही सलामत पहुंचा दिया और शहीद होकर यादों में अमर हो गया। महाराणा प्रताप का हल्दीघाटी की युद्ध का समय पहाड़ों और जंगलों में ही व्यतीत हुआ। अपने गोरिल्ला युद्ध नीति द्वारा उन्होंने अकबर को कई बार मात दी थी। महाराणा प्रताप चित्तौड़ छोड़कर जंगलों में रहने लगे अब वे घास की रोटी और पोखर के पानी पर ही आश्रित थें। अरावली की गुफाएं ही अब उनका आवास और शीला ही सैया थी। मुगल चाहते थे कि महाराणा प्रताप किसी भी तरह अकबर की अधीनता स्वीकार कर ले और दीन ए इलाही का धर्म अपना लें। इसके लिए उन्होंने महाराणा प्रताप तक कई प्रलोभन संदेश भी भिजवाए। लेकिन, महाराणा प्रताप अपने निश्चय पर अडिग रहें। कई छोटे राजाओं ने महाराणा प्रताप से अपने राज्य में रहने की गुजारिश की। लेकिन, मेवाड़ की भूमि को और मुगल आधिपत्य से बचाने के लिए महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक मेवाड़ आजाद नहीं होगा वह महलों को छोड़कर जंगलों में निवास करेंगे। स्वादिष्ट भोजन को त्याग कर कंदमूल और फलों से ही पेट भरेंगे। लेकिन, अकबर का अधिपत्य कभी स्वीकार नहीं करेंगे। जंगल में रहकर ही महाराणा प्रताप ने भिलों की शक्ति को पहचान कर छापामार युद्ध पद्धति से अनेक बार मुगल सेना को कठिनाइयों में डाला था। बाद में मेवाड़ के गौरव भामाशाह ने महाराणा के चरणों में अपनी समस्त संपत्ति रख दी थी। भामाशाह ने 2000000 अशरफिया और 2500000 रुपए महाराणा को भेंट की। महाराणा इस प्रचुर संपत्ति से पुनः सैन्य संगठन में लग गए। इस अनुपम सहायता से प्रोत्साहित होकर महाराणा ने अपने सैन्य बल का पुनर्गठन किया तथा उनकी सेना में नवजीवन का संचार हुआ। महाराणा प्रताप ने पुनः कुंभलगढ़ पर अपना कब्जा स्थापित करते हुए शाही फ़ौजों द्वारा स्थापित थानों और ठिकानों पर अपनाआक्रमण जारी रखा। बाद में मुगल बादशाह अकबर ने एक और विशाल सेना, शाहबाज खान के नेतृत्व में मेवाड़ भेजी। इस विशाल सेना ने कुंभलगढ़ और केलवाड़ा पर कब्जा कर लिया था तथा गोगुंदा और उदयपुर क्षेत्र में लूटपाट की। ऐसे में महाराणा प्रताप ने विशाल सेना का मुकाबला जारी रखते हुए अंत में पहाड़ी क्षेत्र में पनाह ले कर स्वयं को सुरक्षित रखा और चावंड पर पुनः कब्जा प्राप्त किया। शाहबाज खान एक बार फिर अकबर के पास खाली हाथ लौटा। चित्तौड़ को छोड़ कर महाराणा ने अपने समस्त दुर्गों का शत्रु से पुनरुद्धार कर लिया और उदयपुर को उन्होंने अपनी राजधानी बनाया। विचलित मुगलिया सेना के घटते प्रभाव और अपने आत्मशक्ति के बूते महाराणा ने चित्तौड़गढ़ एवं मंडलगढ़ के अलावा संपूर्ण मेवाड़ पर अपना राज्य पुनः स्थापित कर लिया। इसके बाद मुगलों ने कई बार महाराणा प्रताप को चुनौती दी। लेकिन, मुगलों को मुंह की खानी पड़ी। आखिरकार युद्ध और शिकार के दौरान लगी चोटों की वजह से महाराणा प्रताप की मृत्यु 29 जनवरी 1597 को चावांड में हुई।

शेषनाथ सिंह।
(जिला अध्यक्ष, सोनभद्र)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *