बलात्कार के मामलों में भारत का कानून क्या कहता है?
सौमित्र रॉय
1. सबसे पहले FIR लिखी जाए। लेकिन यदि आरोपी दबंग, रसूखदार हो तो वह पुलिस को प्रभावित करने की कोशिश करता है और अमूमन सफल भी होता है।
नतीजा: रेप की रिपोर्ट नहीं लिखी जाती।
2. पीड़िता को अस्पताल में दाखिल करवाना। मेडिको लीगल केस होने से उसके कपड़ों और अन्य अहम साक्ष्यों को संरक्षित करना।
हक़ीक़त: साक्ष्यों को कमज़ोर करने की कोशिश होती है।
3. 164 के तहत पीड़िता का बयान लेना। बयान मजिस्ट्रेट के सामने लिया जाता है।
4. अगर पीड़िता की मौत हो जाए तो पोस्टमॉर्टेम के बाद शव को परिवार के हवाले किया जाता है।
हक़ीक़त: हाथरस में नहीं किया गया।
5. एक और बात। निर्भया मामले के बाद रेप आईपीसी की धारा 181 और 182 में बदलाव किए गए।
6. अगर किसी महिला के साथ कोई भी पुरुष जबरन शारीरिक संबंध बनाता है, तो वह रेप होगा।
7. महिला के प्राइवेट पार्ट में पुरुष अगर अपना प्राइवेट पार्ट या फिर कोई भी ऑब्जेक्ट डालता है तो वह रेप होगा। महिला की उम्र 18 साल से कम है और उसकी शारीरिक संबंध के लिए सहमति है, तो भी वह रेप होगा।
8. अगर डरा कर सहमति ली गई है, तो भी वह रेप होगा। अगर महिला की सहमति के समय उसकी दिमागी हालत ठीक नहीं हो, उसे बेहोश कर नशे की हालत में सहमति ली गई हो तो वह भी रेप होगा।
9. सीआरपीसी की धारा-309 में भी बदलाव किया गया है। इसके तहत प्रावधान किया गया है कि रेप से संबंधित मामले का ट्रायल दो महीने में पूरा किया जाएगा।
हक़ीक़त: बिष्ट के फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट का गुणगान मत कीजिए।
10. 11 अक्टूबर 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला दिया। 18 साल से कम उम्र की पत्नी से अगर पति ने संबंध बनाए और पत्नी ने एक साल के भीतर शिकायत कर दी, तो पति पर रेप का केस बनेगा।
हाथरस मामले में पीड़िता के 164 के तहत बयान अलीगढ़ अस्पताल में मजिस्ट्रेट के सामने हुए। क्या सबूतों को संरक्षित किया गया? पीड़िता की मौत के बाद उसका शव परिवार को नहीं मिला। उसे रात 2.30 बजे जबरदस्ती जला दिया गया।
यूपी के एडिशनल डीजीपी प्रशांत कुमार जब FSL की रिपोर्ट के आधार पर रेप न होने का दावा कर रहे थे तो क्या उन्हें किसी ने याद दिलाया कि IPC166 (ए) के तहत रेप का FIR न लिखना दंडनीय अपराध है?
कल एमपी में भी एक महिला ने इसलिए जान दे दी, क्योंकि रेप की रिपोर्ट नहीं लिखी गई। पत्रकार ने भी खबर लिखते हुए 166 (ए) का ज़िक्र नहीं किया।
पुलिस अधिकारी द्वारा केस दर्ज नहीं करने व आनाकानी करने की स्थिति में संबंधित पुलिस अधिकारी के विरुद्ध आईपीसी की धारा 166 (ए) के तहत मुकदमा दर्ज करना पड़ता है।
निलंबन तो प्रशासनिक मामला है। कानून का इस्तेमाल कहां हुआ? किसने मांग की? किसने सवाल पूछा?
क्या एक आईपीएस को ये धाराएं समझानी होंगी?
क्या एक सीनियर पत्रकार को इन धाराओं के लागू न होने का मतलब समझाना होगा?
क्या एक नारीवादी कार्यकर्ता को उसकी भूमिका समझानी होगी, जो मी-टू से कहीं आगे समाज और व्यवस्था को जागरूक करने की भी है?
क्या एक संपादक को बताना होगा कि रेप के मामले की किस तरह रिपोर्टिंग की जाए?
क्या सोशल मीडिया पर रेप के मामले में टिप्पणी करने वाले को उसकी कानूनी हद याद दिलानी होगी? यह बताना होगा कि किस तरह की तस्वीर लगानी चाहिए?
अगर निर्भया केस के 7 साल 9 महीने बाद भी यह सब बताना पड़ता है तो साफ़ है कि इस देश का पूरा समाज रेपिस्टों की मदद ही कर रहा है, जो बच निकलने के लिए कुछ भी करना चाहते हैं। अगर आप सवाल नहीं कर सकते (या करना नहीं चाहते) तो चुपचाप सवाल बन जाइये।
आप में से कितने मित्र हैं, जिन्होंने परिवार की बेटियों को भारत में रेप कानूनों के बदलाव के बारे में बताया है? नहीं बताया? क्यों? आप खुद किसी को बचाना तो नहीं चाहते? ऐसा करके आप देश की आधी आबादी को कमज़ोर कर रहे हैं।
आप बेशक संविधान के साथ हैं, पर संविधान को समझकर उसके बुनियादी सवालों को नहीं उठा रहे। आपको समझना होगा कि इन्हीं बुनियादी सवालों को उठाने पर ही आसाराम और सेंगर जैसे बलात्कारी आज सींखचों के पीछे हैं।
अगर पुलिस दोषी है तो उसे सज़ा मिलेगी। अगर नेता दोषी है तो उसे भी सींखचों के पीछे आना ही होगा। चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो। कानूनी पहलुओं पर सवाल उठाने की ज़रूरत है।
हाथरस एक और मौका है, जब देश निर्भया से आगे एक परिपक्व समाज के रूप में दुनिया को अपना चेहरा दिखा सकें। इसे चूक गए तो आधी आबादी पर संकट और गहराएगा।