पाखण्डों के सख्त विरोधी थे गुरु नानक देव

गुरु नानक जयंती प्रतिवर्ष कार्तिक मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है लेकिन यह कारण अभी तक ज्ञात नहीं है कि उनकी जयंती किसी एक निर्धारित तिथि को न मनाकर कार्तिक मास की पूर्णिमा को ही क्यों मनाई जाती है? गुरु नानक जयंती को ‘प्रकाश पर्व’ भी कहा जाता है और इस बार प्रकाश पर्व की विशेषता यह है कि गुरु  नानक का यह 550वां प्रकाश पर्व

गुरु नानक जब मात्र पांच वर्ष के थे, तभी धार्मिक और आध्यात्मिक वार्ताओं में गहन रूचि लेने लगे थे। अपने साथियों के साथ बैठकर वे परमात्मा का कीर्तन करते और जब अकेले होते तो घंटों कीर्तन में मग्न रहते। वे दिखावे से कोसों दूर रहते हुए यथार्थ में जीते थे। जिस कार्य में उन्हें दिखावे अथवा प्रदर्शन का अहसास होता, वे उसकी वास्तविकता जानकर विभिन्न सारगर्भित तर्कों द्वारा उसका खंडन करने की कोशिश करते। नानक जब 9 वर्ष के हुए तो उनके पिता कालूचंद खत्री, जो पटवारी थे और खेती-बाड़ी का कार्य भी करते थे, ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराने के लिए पुरोहित को बुलाया। जब पुरोहित ने यज्ञोपवीत पहनाने के लिए नानक के गले की ओर हाथ बढ़ाया तो नानक ने पुरोहित का हाथ पकड़ लिया और पूछने लगे कि आप यह क्या कर रहे हैं और इससे क्या लाभ होगा?

है और गुरु नानक जयंती मनाने के लिए देशभर के गुरुद्वारों में विशेष तैयारियां की गई हैं। सिख धर्म के आदि संस्थापक गुरु नानक देव का जन्म तलवंडी (जो भारत-पाक बंटवारे के समय पाकिस्तान में चला गया) में सन् 1469 में हुआ था। गुरू नानक देव सिखों के पहले गुरू हुए हैं, जो न केवल सिखों में बल्कि अन्य धर्मों के लोगों में भी उतने ही सम्माननीय रहे हैं।

पुरोहित ने कहा, ‘‘बेटे, यह जनेऊ है। इसे पहनने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसे पहने बिना मनुष्य शूद्र की श्रेणी में रहता है।’’

 

तब नानक ने पुरोहित से पूछा, ‘‘यह सूत का बना जनेऊ मनुष्य को मोक्ष कैसे दिला सकता है? मनुष्य का अंत होने पर जनेऊ तो उसके साथ परलोक में नहीं जाता।’’

 

नानक के इन शब्दों से वहां उपस्थित सभी व्यक्ति बेहद प्रभावित हुए। अंततः पुरोहित को कहना ही पड़ा कि तुम सत्य कह रहे हो, वास्तव में हम अंधविश्वासों में डूबे हुए हैं।

 

19 वर्ष की आयु में नानक का विवाह गुरदासपुर के मूलचंद खत्री की पुत्री सुलखनी के साथ हुआ किन्तु धार्मिक प्रवृत्ति के नानक को गृहस्थाश्रम रास न आया और वे सांसारिक मायाजाल से दूर रहने का प्रयास करने लगे। यह देखकर इनके पिता ने इन्हें व्यवसाय में लगाना चाहा किन्तु इसमें भी नानक का मन न लगा। एक बार नानक के पिता ने इन्हें कोई काम-धंधा शुरू करने के लिए कुछ धन दिया लेकिन नानक ने सारा धन साधु-संतों और जरूरतमंदों में बांट दिया और एक दिन घर का त्याग कर परमात्मा की खोज में निकल पड़े।

 

गुरु नानक पाखंडों के घोर विरोधी थे और उनकी यात्राओं का वास्तविक उद्देश्य लोगों को परमात्मा का ज्ञान कराना किन्तु बाह्य आडम्बरों एवं पाखंडों से दूर रखना ही था।

 

एक बार ऐसी ही यात्रा करते हुए जब गुरु नानक हरिद्वार पहुंचे तो उन्होंने देखा कि बहुत से लोग गंगा में स्नान करते समय अपनी अंजुली में पानी भर-भरकर पूर्व दिशा की ओर उलट रहे हैं। उन्होंने विचार किया कि ये लोग किसी अंधविश्वास के कारण ही यह सब कर रहे हैं। तब उन्होंने लोगों को वास्तविकता का बोध कराने के उद्देश्य से अपनी अंजुली में पानी भर-भरकर पश्चिम दिशा की ओर उलटना शुरू कर दिया।

 

कुछ लोगों ने उन्हें काफी देर तक इसी प्रकार पश्चिम दिशा की ओर पानी उलटते देखा तो उन्होंने गुरु नानक से पूछ ही लिया, ‘‘भाई तुम कौन हो और किस जाति के हो तथा पश्चिम दिशा में जल देने का तुम्हारा क्या अभिप्राय है?’’

 

नानक बोले, ‘‘पहले आप लोग बताएं कि आप पूर्व दिशा में पानी क्यों दे रहे हैं?’’

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