Gyan Ganga: पहली मुलाकात के दौरान श्री रामजी और हनुमंत लाल की मीठी लुका−छुपी

विगत अंक में हमने जाना कि विप्र रूप श्री हनुमान भगवान श्री राम से प्रश्नों की एक श्रृंखला तो रखते हैं लेकिन श्रीराम मात्र सुनते रहते हैं। प्रतिउत्तर में एक शब्द तक नहीं कहते। लेकिन जैसे ही हनुमान जी ने पूछा, ‘की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार’ तो श्री राम जी ने सोचा कि जब श्री हनुमान जी स्वयं अपना वास्तविक परिचय छुपा रहे हैं तो लो हम भी स्वयं को प्रकट नहीं करते। और श्री राम ने अपना दैवीय परिचय देने की बजाए दैहिक परिचय दे डाला−

सज्जनों यहाँ श्री राम जी का श्री सीता जी के निमित्त ‘बैदेही’ शब्द का प्रयोग एवं उनके निशाचरों द्वारा हरे जाना एक गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य उजागर कर रहा है। बैदेही अर्थात् देह के बंधनों से परे, समस्त विकारों व कर्म बंधनों से मुक्त आत्मा। और श्री सीता जी ऐसी ही थीं। लेकिन जीवन में जब श्री सीता रूपी आत्मा इस सांसारिक वासना के विष से विषाक्त होती है कि मुझे एक स्वर्ण मृग चाहिए ही चाहिए। भले ही इसके लिए मुझे प्रभु को भी स्वयं से दूर भेज कर उन्हें दाँव पर लगाना पड़ जाए। तो निश्चित ही ऐसे में प्रभु से विलग होना टाला नहीं जा सकता। लेकिन ऐसे में भी प्रभु की दया व ममतामय भाव देखिए। पता है कि श्री सीता रूपी आत्मा स्वयं से निर्मित विषय के कारण ही हमसे विलग हुई और यह भी कोई अनिवार्यता नहीं कि प्रभु उन्हें जंगल−जंगल, बेले−बेले ढूंढ़ें ही। लेकिन जीवात्मा के प्रति प्रेम के कारण प्रभु स्वयं कहाँ−कहाँ जाकर उसे नहीं ढूंढ़ते। क्योंकि प्रभु तो जानते हैं न कि जीवात्मा भले ही कितने भी सांसारिक सुख व संपदाओं में क्यों न पले। तब भी बिना मेरे उसे प्रसन्नता की एक बूंद तक महसूस नहीं हो सकती। तभी तो मानो प्रभु ने तब मन ही मन सोचा होगा कि हे सीते हमें दूर भेजकर तुम उस स्वर्ण मृग को पास लाने में ही सुख की कल्पना कर रही हो। तो लो फिर, तुम भी क्या याद रखोगी। तुम एक स्वर्ण मृग की कामना करती हो। हम तुम्हें 400 मील की स्वर्ण जड़ित लंका नगरी में बिठाए देते हैं। देखते हैं तुम्हें स्वर्ण कोई सुख देता है अथवा नहीं। सज्जनों हम भलीभांति अवगत हैं कि माता सीता लंका नगरी में निरंतर तेरह मास निवास करती हैं। लेकिन कोई एक क्षण भी ऐसा नहीं था कि उनके दुःखद नेत्रों से अश्रु सूखे हों। प्रभु वियोग में माता सीता सदैव रोती रहीं।

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