बल्देव(मथुरा)। मथुरा का हुरं गाहुरंगे में हुरियारे-हुरियारिनों पर टेसू के रंग डालते हैं, वहीं हुरियारिनें हुरियारों के कपड़े फाड़कर कोड़े बनाती हैं और पिटाई करती हैं। गोपिकाएं उलाहना मारते हुए कहती हैं ‘होली में खेले मतवारौ हुरंगा है दाऊजी महाराज…’। इन गीतों व रसिया की धुन पर होते हुरंगा को देख लोग आनंदित हो जयकारे लगाते हैं।
मंदिर प्रांगण साक्षात देवलोक नजर आ रहा था। मंदिर प्रांगण में हुरियारे रेवती व बलदाऊजी जी के अलग-अलग झंडे लेकर परिक्रमा कर होली गीत ‘मत मारे दृगन की चोट रसिया होरी में मेरे लग जाएगी…’ सुनाते हैं। महिलाएं झंडों को छुड़ाने का प्रयास करती हैं और हुरियारों की तेज पिटाई करती हैं। हुरियारे नाचते गाते झूमते हुए दूने उत्साह से नजर आए।
दाऊजी के हुरंगा की अनूठी परंपरा है। कहावत है कि ‘देखि-देखि या ब्रज की होरी, ब्रह्मा मन ललचाबै।’ ब्रज की होली भगवान श्रीकृष्ण पर केंद्रित है, वहीं, दाऊजी का हुरंगा उनके बड़े भाई बलदेव जी पर केंद्रित है। हुरंगा में पुरुष गोप समूह को महिलाएं गोपिका स्वरूप द्वारा प्रेम से भीगे पोतने (कोड़ों) की मार नंगे बदन पर खाते हैं।
दाऊजी में गोस्वामी कल्याणदेव के वंशज पांडेय समाज के लोग ही हुरंगा खेलते हैं। छत, छज्जों से क्विंटलों गुलाल एवं फूलों की पंखुड़ियां उड़ाईं गईं। इस दौरान आकाश इंद्र धनुषी होता है। हुरंगा में हुरियारिनें झंडा छीनने का प्रयास करती हैं। पुरुष इसे बचाने का प्रयास करते हैं। अंत में महिलाएं झंडा छीनने में सफल होकर हारे रे रसिया, जीत चली ब्रज नारि, इसके साथ हुरंगा संपन्न हो जाता है।