मथुरा। वृंदावन द्वापरकाल की है, भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रजगोपियों की इच्छा पूर्ति के लिए वंशीवट पर शरद पूर्णिमा की रात महारास किया। महारास में वंशी के स्वर देवलोक तक जा पहुंचे। सोलह कलाओं से परिपूर्ण चंद्रमा की धवल चांदनी में जब भगवान श्रीकृष्ण ब्रजगोपियों संग महारास कर रहे थे। इसके दर्शन की इच्छा देवलोक में बैठे देवताओं को भी हुई और वंशी की धुन कैलाश पर बैठे भगवान भोलेनाथ के कानों तक पहुंची, तो वे समाधि छोड़ वृंदावन महारास का दर्शन करने जा पहुंचे। महारास परिसर में पुरुषों में केवल कृष्ण को ही प्रवेश की अनुमति थी और सब गोपियां ही थीं। इसलिए भगवान भोलेनाथ को प्रवेश नहीं मिला। भोलेनाथ ने तो तय कर लिया था कि कुछ भी हो उन्हें महारास के दर्शन तो करने ही हैं। इसलिए उन्होंने गोपी रूप रखा और महारास में प्रवेश कर लिया। श्रीकृष्ण ने पहचान लिया और टोका। भोलेनाथ ने श्रीकृष्ण से वृंदावन में ही निवास करने की इच्छा जताई, तो भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें वंशीवट किनारे गोपीरूप में ही वृंदावन में भक्तों को दर्शन देने के लिए जगह उपलब्ध कराई। ये मंदिर गोपीश्वर महादेव मंदिर के नाम से प्रख्यात है। श्रीमद्भागवत में उल्लेख है जब महारास करने की अभिलाषा से श्रीकृष्ण ने वेणु वादन शुरू किया, तो उसके स्वर को सुन भोलेनाथ भी प्रभु के रास दर्शन की अभिलाषा में वृंदावन आ पहुंचे। सखियों ने उन्हें रोकते हुए कहा, यहां पुरुषों का प्रवेश वर्जित है। रास में प्रवेश का अधिकार केवल गोपियों को हैं। यह सुनकर भोलेनाथ ने तत्काल गोपी वेश धारण किया और बन गए गोपेश्वर महादेव। वृंदावन शोध संस्थान के शोध एवं प्रकाशन अधिकारी डा. राजेश शर्मा ने बताया चाचा हितवृंदावनदास ने इसका उल्लेख अपने पदों में किया है।
रिपोर्ट /- प्रताप सिंह