पते की बात : क़यामत – फ़ैज़ की नजर में
क़यामत एक ऐसा वक्त है, जिसका इन्तज़ार हर मुसलमान को है, इस्लामिक धारणा है कि जब दुनिया में कोई काफ़िर ना होगा, तब अल्लाह ताला, हज़रत रसूल के साथ इस धरती पर आयेगा, तब दुनिया में कोई जिंदा ना रहेगा, तब सब रूहों को इकठ्ठा करके इन्साफ किया जाएगा और सभी को दीन पर वफादारी के हिसाब से जन्नत या जहन्नुम का फैसला सुनाया जाएगा। जहाँ क़यामत का जिक्र है, वहाँ य़ह भी जिक्र है कि इन रूहों में 100 में से 99 जहन्नुम जायेंगी।
उसके बाद दुनिया ना रहेगी अर्थात क़यामत वो दिन होगा जिसके बाद दुनिया नेस्तनाबूद हो जाएगी। इन हदीसों से मालूम हुआ कि कयामत कायम होने के वक्त कोई मुसलमान दुनिया में मौजूद न होगा। इस बड़ी मुसीबत से अल्लाह तआला इन इंसानों को बचाये रखेंगे, जिनके दिल में जर्रा बराबर भी ईमान (इस्लाम के प्रति) होगा।
और य़ह क़यामत तब होगी जब सारी दुनिया को दार-ऊल-हरब से दार-ऊल-इस्लाम में बदल दिया जाएगा। य़ह लाजमी है और य़ह तब ही सम्भव है है जब दुनिया में केवल इस्लाम की सत्ता और इस्लाम का लश्कर सबसे बड़ा और ताक़तवर हो।
और हम देख रहेंगे कि इस्लाम जबसे अस्तित्व में आया है जब से इस्लामिक विचारधारा कुछ मौलिक तथ्यों पर आधारित है –
1. किसी राष्ट्र के प्रति कोई आस्था नहीं ।
2. लोकतंत्र के प्रति कोई आस्था नहीं।
3. विश्व की किसी संस्कृति में कोई विश्वास नहीं।
4. तलवार के बल पर सत्ता हासिल करना ।
5. तलवार के बल पर काफ़िरों को मारना ।
6. काफ़िरों और मुश्रिकों की संपत्ति लूटना उनकी औरतौं के साथ दुराचार करना ।
7. इस्लाम को ना मानने वालों से हर प्रकार का छल फरेब करना।
8. किसी भी तरह प्रत्येक जगह सत्ता पर काबिज होना।
9. हर स्थिति में आबादी बढ़ाना, बच्चे पैदा करते रहना ।
मुझे एक बात बहुत पसंद है कि जो लोग दीन (इस्लाम) पर ईमान रखते हैं किसी भी स्थिति में वह अपने ईमानदारी से डिगते नहीं, उनको कोई परवाह नहीं होती लोग उनके विषय में क्या सोचेंगे? अपने दिन पर पूरी वफादारी। चाहे डॉ मुहम्मद इकबाल हो या राहत इंदौरी हो या मुनव्वर राना, यह अपना जिहादी ऐजेंडा कभी नहीं छोड़ते। इकबाल ने 1930 में लिखा- ‘हो जाये अगर शाहे-खुरासां का इशारा , सिजदा न करूँ हिन्द की नापाक जमीं पर ” इकबाल का मिल्ली तराना हमें याद है-
‘चीन-ओ-अरब हमारा हिन्दोस्ताँ हमारा
मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा
तौहीद की अमानत सीनों में है हमारे
आसाँ नहीं मिटाना नाम-ओ-निशाँ हमारा
दुनिया के बुत-कदों में पहला वो घर ख़ुदा का
हम इस के पासबाँ हैं वो पासबाँ हमारा
तेग़ों के साए में हम पल कर जवाँ हुए हैं
ख़ंजर हिलाल का है क़ौमी निशाँ हमारा’
किन्तु इन सब से आगे बढ़कर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने कामत का जो चित्रण अपनी गज़ल में किया है वह उनकी इस्लाम के प्रति आस्था का प्रदर्शन करता है। नजारा देंखे-
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पांव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे – सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़रभी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
लोह-ए-अज़ल -विधि के विधान
कोह-ए-गरां -घने पहाड़ रुई की तरह उड़ जाएँगे
महकूमों – रियाया या शासित के
अहल-ए-हकम – सताधीश के सर ऊपर
बुत – सत्ताधारियों के प्रतीक पुतले
अहल-ए-सफ़ा – साफ़ सुथरे लोग
मरदूद-ए-हरम – धर्मस्थल में प्रवेश से वंचित लोग
विचार:अशोक चौधरी
अध्यक्ष आहुति अलीगढ़