हाथरस में एक युवती के साथ हुई जघन्य हिंसा से जनमानस का उद्वेलित होना स्वाभाविक है। उसके साथ दुष्कर्म की पुष्टि न करने वाली फोरेंसिक जांच को लेकर सवाल हैं। सच जो भी हो, यह एक कड़वी हकीकत है कि बीते एक-डेढ़ दशक से देश में दुष्कर्म के मामले बढ़ते जा रहे हैं। इन दिनों भी देश के विभिन्न हिस्सों से दुष्कर्म के मामले सामने आ रहे हैं। स्त्रियों के साथ हिंसा, जिसकी चरम परिणति दुष्कर्म के रूप में होती है, मुख्य रूप से सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक क्षरण से जुड़ी हुई है। क्षरण की इन परिस्थितियों से पूरा देश ग्रसित हो रहा है। इसलिए दुष्कर्म जैसी घटनाएं केवल एक क्षेत्र या वर्ग तक सीमित नहीं। वास्तव में अपनी कमजोर आर्थिक-सामाजिक स्थिति के कारण निम्न वर्ग या जाति की स्त्रियां इसकी सबसे अधिक शिकार होती हैं।
देश के लगभग सभी हिस्सों से दुष्कर्म या यौन उत्पीड़न की घटनाएं सुनने में आती रही हैं। ऐसे में देश की आधी आबादी की इस खतरनाक समस्या के समाधान के लिए इन घटनाओं के पीछे के समाजशास्त्र और मनोविज्ञान को समझना जरूरी है। समाज-मनोविज्ञानियों के अनुसार स्त्रियों के साथ हिंसा-दुष्कर्म की सबसे बड़ी वजह पुरुष वर्चस्ववादी सोच है, जिसमें स्त्रियों को हेय दृष्टि से देखने के साथ ही उन्हें उपभोग की वस्तु माना जाता है। इसीलिए कई बार रंजिश में भी औरतों को निशाना बनाया जाता है।
सामाजिक दबाव और डर कम होने से भी पाशविक प्रवृत्ति है बढ़ी
यह स्थिति केवल एक मजहब, जाति, वर्ग और क्षेत्र तक सीमित नहीं है। दुष्कर्म के लिए एक अन्य स्थिति जो जिम्मेदार है, वह है सामुदायिकता की भावना का उत्तरोत्तर कम होते जाना। एक समय हमारा समाज, मोहल्ले और गांव-कस्बे एक विस्तृत परिवार की तरह होते थे, जहां लोग अपने सुख-दुख साझा कर लिया करते थे। मूल्यहीन भौतिकतावादी आधुनिकता, अनियंत्रित नगरीकरण, एकाकीपन, चरम वैयक्तिकता और आगे बढ़ने की होड़ ने सामूहिकता की इस भावना को कमजोर किया है। लोगों में सामाजिक दबाव और डर कम होने से भी पाशविक प्रवृत्ति बढ़ी है।
संस्कारों की है बड़ी भूमिका
दुष्कर्म की घटनाओं को रोकने में सबसे जरूरी है लोगों की मानसिकता में परिवर्तन और इसमें मूल्यपरक शिक्षा के साथ-साथ नई पीढ़ी को परिवार एवं समाज के स्तर पर दिए जाने वाले संस्कारों की भी बड़ी भूमिका है। इसके लिए हमें शैक्षणिक और शिक्षणेतर पाठ्यक्रम में विशेष ध्यान देना होगा और सिविल सोसायटी को बेहतर समाज बनाने की चिंता करनी होगी। पश्चिमी प्रभाव में आकर चारित्रिक मूल्य निर्माण को हमारे शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में हाशिये पर रख दिया गया है। स्कूली छात्रों के प्रोजेक्ट के विषय इस तरह से निर्धारित किए जाने चाहिए, जो नारी के प्रति संवेदनशीलता और उच्च भावों को भरने वाले हों। इसका ध्यान विभिन्न शिक्षणेत्तर क्रियाकलापों के संदर्भ में भी रखा जाए।
आजकल एनसीईआरटी नई ‘राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा’ पर विचार भी कर रही है। ऐसे में उससे अपेक्षा है कि पाठ्यचर्या और पाठ्य पुस्तकों के निर्माण में इन बिंदुओं को भी समाहित किया जाएगा। यह भी स्पष्ट है कि सारी जिम्मेदारी शिक्षा संस्थानों पर नहीं डाली जा सकती। शिक्षा संस्थानों के साथ-साथ समाज को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी।