भक्ति जीवन को सुपथगामी बनाकर श्रेष्ठ मार्ग की ओर अग्रसित करती है। यदि किसी मनुष्य के जीवन में भक्ति नहीं है तो फिर निश्चित समझिए वो कुपथगामी है। जो कुपथगामी है, वही तो आसुरी प्रवृत्ति का भी है। जिस मनुष्य के जीवन में भक्ति नहीं फिर उसी मनुष्य का जीवन हिरण्यकशिपु की तरह असुरत्व प्रधान भी बन जाता है।
सीधे शब्दों में कहें तो वो ये कि भक्ति और भक्त का निरादर करने वाला मनुष्य ही हिरण्यकशिपु है। जिस मनुष्य के जीवन में भक्ति नहीं उस मनुष्य के जीवन में सदाचरण की शक्ति भी कभी हो ही नहीं सकती।
जहाँ सदाचार है, वहाँ सुरत्व और जहाँ दुराचार है, वहीं तो असुरत्व है। भक्ति नर को नारायण स्वरूप बनाने की प्रयोगशाला है। भक्ति जीवन को परिष्कृत करके दुनियाँ के बाजार में उसके मोल को बढ़ाकर अनमोल कर देती है। जीवन में भक्ति का समावेश और भक्त का सम्मान ही स्व उत्थान का मूल है।
संजीव कृष्ण ठाकुर जी
काठमांडू नेपाल